Thursday, April 17, 2014

मेरी पहचान


अपने आप को समझने निकला था। लगा था अकेले ही इसकी समझ बन जायेगी। पर गलत था। जितना अपने आप को समझता हूँ उतना समझ आता है कि मैं इस विशाल समाज के उस  छोटे से हिस्से का प्रतिबिम्ब मात्र हूँ जिसको मैंने देखा है, जिसमे मैं रहा हूँ, और कुछ नहीं। अकेला तो मैं कहीं खड़ा ही नहीं था या फिर ये कहिये की मैं था ही नहीं, था तो केवल वो प्रतिबिम्ब। वह प्रतिबिम्ब जो सजीव है, महसूस करता है। वह प्रतिबिम्ब जिसका अस्तित्व  सामाजिक रिश्तों से बना है। वह समाज से ऐसे जुड़ा है जैसे कभी कभी दो शिशु जन्म के समय से ही एक दूसरे से जुड़े होते हैं। होते तो वो दो ही हैं पर उनके शरीर पूर्णतः अलग नहीं हुए होते। मैं (नहीं नहीं मैं नहीं, ये प्रतिबिम्ब) और समाज दो ऐसे शिशु हैं जो शरीर से तो अलग हैं पर मानसिक स्तर पर नहीं। शरीर से जुड़े हुए शिशुओं का होना शायद सृष्टि की रचना में अपवाद माना जाता है, पर इस प्रतिबिम्ब और समाज के सन्दर्भ में ऐसा रिश्ता प्राकृतिक सा प्रतीत होता है।

मनु कंचन

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