Tuesday, May 20, 2014

लम्बे बाल

"नहीं, मैं लड़की हूँ" वह ५-६ (5-6) साल की लड़की अपनी क्षमता से कुछ तेज़ आवाज़ में अपने मामाजी से बोल रही थी। लोगों से खचाखच भरे उस ट्रेन के डब्बे में, उस लड़की की आवाज़ कहीं दब सी गयी थी। मैं उनकी सीट के बगल में खड़ा था। आखिर आरक्षित डब्बे में साधारण वर्ग की टिकट लेकर चढ़ने वाले को खड़े होने की ही तो जगह मिलेगी। लड़की के मामाजी २०-२२ साल का एक जवान लड़का ही था। मामाजी लड़की को थोड़ा तंग करने के भाव से बोले "पर आपके बाल तो लम्बे नहीं हैं, न ही आपके कान या नाक में कुछ डाला हुआ है।" मामाजी कह तो सही रहे थे, लड़की के बाल बॉयकट के थे और न तो उसके कान बिने हुए थे और ना ही नाक। "यहाँ आस पास देखो किसी भी लड़की के बाल छोटे नहीं हैं और सबने नाक और कान में कुछ पहना हुआ है।" इससे पहले की लड़की आस पास देखती मैंने ही आस पास बैठी लड़कियों और महिलाओं पे नज़र घुमा दी। मामाजी इसमें भी सही थे, सब लड़कियों के बाल लम्बे, नाक और कान बिने हुए थे।
वह लड़की रोते हुए अपनी माँ के पास चली गयी और बोली "माँ, मैं लड़की हूँ ना।" यूँ लगा मानो अपने अस्तित्व को बचाने के लिए फ़रियाद कर रही हो और एक सहारा मांग रही हो। माँ बोली "हाँ, हाँ तू है।" फिर अपने भाई की तरफ देख कर बोली "बस बहुत हो गया।" लड़की चुप हो गई, पर शायद संतुष्ट नहीं। खैर फिर भी लड़की को तो शायद उसका सहारा मिल गया पर मैं इन बालों की उलझन में फँस गया। इस नई हकीकत को सत्यापित करने के लिए मैंने फिर आस पास निगाह घुमाई, तो बस लम्बे बाल, बिने हुये कान और नाक ही दिखाई दिए।

मनु कंचन

Saturday, May 17, 2014

तेरी हुकूमत

तेरी हुकूमत मुझे क़ुबूल है,
पर याद रखना इस हुकूमत का भी इक उसूल है,
मैं जानता हूँ तुझे इक कर्ज़ चुकाना है,
पर याद रखना तुझे इस रिश्ते को भी निभाना है,
मैं डोर थामे रखूँगा अपने छोर की,
तू सिलवटें निकाल देना अपने ओर की,
देखना ये मज़हब की कैंची से न कट जाए,
देखना कहीं ये मांझे के बाजार में न बिक जाए

-- मनु कंचन

Thursday, May 15, 2014

हमने मोहब्बत छोड़ दी

हमने मोहब्बत छोड़ दी,
यूं की अब हमने इबादत छोड़ दी,
जिस छाँव तले हम बैठे थे,
उस छाँव की चाहत छोड़ दी,
जिस हुकुम के हम दीवाने थे,
हमने वो हुकूमत छोड़ दी,
जिस चौखट को हमने किया था सजदा,
हमने वो चौखट छोड़ दी,
जिस हसरत से हम मिले थे रब से,
हमने वो हसरत छोड़ दी,
जिस वफ़ा से हमने निभाये थे रिश्ते,
हमने वो वफ़ा भी छोड़ दी,
बस हमने मोहब्बत छोड़ दी,
यूं की अब हमने इबादत छोड़ दी...

--मनु कंचन

Monday, May 12, 2014

लोकतंत्र के हालात

कमल (BJP+) आये या हाथ (Congress+),
हैं तो दोनों ही चोरों की बारात,
जिस मर्ज़ी को रख लो अपने साथ,
लूटेंगे तुमको ये खुले हाथ,
दोनो के हैं कारोबारी ही नाथ,
प्रसाद पूंजी का ही लगाएंगे दिन रात,
कारखाने लगेंगे हाथोँ हाथ,
मज़दूरों की ना सुनेगा कोई बात,
बहुत बढ़ेगी ठेकेदारी की जात,
मौत लगाएगी खेतों में घात,
कहीं सूखा तो कहीं होगी पैसे की बरसात,
ऐसे ही अच्छे दिन हैं और आएंगे इनके साथ,
ऐसे रहे हैं और ऐसे ही होंगे इस लोकतंत्र के हालात...



मनु कंचन

Sunday, May 11, 2014

कानों का छेदना

तीन चक्कों पे चलने वाले रिक्शा पर बैठे हुए, एक छोटे से शहर की तंग सी गली से गुज़र रहा था।  आस पास की दुकानों पर नज़र घुमायी तो देखा दुकानें भी उतनी ही तंग थीं जितनी के गली। सोने, चांदी के गहनों से लदी हुई वो दुकानें तंग जरूर थीं पर गऱीब नहीं। दो तीन दुकानें निकली ही थीं के एक दुकान से ६-७ साल की लड़की रोते हुए बाहर आई। उसके एक कान से हल्का सा खून निकल रहा था। पीछे ही उसकी माँ और एक ५५-६० साल की औरत आती दिखाई दीं। एक हाथ से माँ लड़की को पकड़ रही थी तो दूसरे से कान के एक छोटे से झुमके को। लड़की रोती ही जा रही थी। माँ उसके आंसू पोंछते हुये पयार से बोली "दर्द हो रहा है?" लड़की ने हल्के से सिर हिला दिया। माँ फिर बोली "बस थोड़ी देर और, फिर हम तुम्हारी मनपसंद जगह चलेंगे।  ठीक है।" लड़की बोली "पर माँ मुझे दर्द हो रहा है, मुझे अन्दर नहीं जाना।" लड़की को शायद पता भी नहीँ था कि जो हो रहा है उसे कहते क्या हैँ।
खैर माँ ने कहा "गलत बात चलो अन्दर।" माँ की आवाज़ में हल्का सा गुस्सा दिख रहा था। लड़की तब भी अंदर नहीं गयी। माँ ने पीछे बूढी औरत की ओर देखा, मानो कुछ विनती कर रही हो। बूढी औरत ने ना का इशारे करते हुये सिर हिला दिया। लड़की के कान से खून की बून्दें अभी भी निकल रही थी। तभी माँ ने एक लम्बी सी सांस ली, पूरे ज़ोर से लड़की का हाथ पकड़ा और उसे खींच कर अन्दर ले गई। ये सब कुछ होने में रिक्शा जिस पर मैँ बैठा था उस दुकान को कहीं पीछे छोड़ आया था। अब बस दुकान के उस पारदर्शी कांच से लड़की के रोने की धुंधली सी तस्वीर दिखाई दे रही थी। पूरा तो पता नहीं पर शायद प्रक्रीया पूरी हो ही गई होगी, कान आखिर छिद ही गए होंगे। और शायद लड़की नए नए कुण्डल पाकर बाद में खुश भी बहुत हुई होगी, किस चीज़ हुई होगी मुझे नहीं पता।

मनु  कंचन

Saturday, May 10, 2014

घटनायें





हँसता हूँ अपनी ही रचनाओं पे,
लिखीं हैं जो जीवन की अनगिनत घटनाओं पे,
ये घटनायें कितने निशान छोड जाती हैं,
जिंदगी के रासते जाने कैसे मोड़ जाती हैँ,
मंज़िलों के निशान तक बाकी नहीं रहते,
इनकी बुनियाद को कुछ ऐसे तोड़ जाती हैँ... -- मनु कंचन


 

Thursday, May 8, 2014

लोकतंत्र का मेला - भाग २

मेला है भई मेला है,
लोकतंत्र का मेला है,
पांच साल में आता है,
रंग अनेकों लाता है,
इसे, खूब सजाया जाता है,
सबको ही बुलाया जाता है,
ऊँची ऊँची आवाज़ों में,
बहुत शोर मचाया जाता है,
रंगबिरंगे मंचों पर,
फिर नाटक रचाये जाते हैं,
टेढ़े मेढ़े नेताओं को,
फिर एक्टर बनाया जाता है,
जगह जगह पे जा जाकर,
फिर चर्चाएं की जाती हैं,
बड़े बड़े से पंखों से,
इक हवा चलायी जाती है,
बड़ी बड़ी मशीनो से,
नदी, पैसे की बहाई जाती है,
जब ये सब देखा जाता है,
तो प्रश्न ये मन में आता है,
ये मेला कौन सजाता है,
कौन हमें बहलाता है,
ये पैसा कहाँ से आता है,
मेला आने के पहले तक,
कहाँ ये रखा जाता है,
ये क्यों नहीं कोई बताता है,
ये क्यों नहीं कोई बताता है,
इन प्रश्नों के फिर उत्तर में,
बस इतना समझ में आता है,
नहीं नहीं ये मेला नहीं,
ये तो वोटों का व्यापार है,
नहीं नहीं ये मेला नहीं,
ये तो खुला बाजार है,
ये हम लोगों का मेला नहीं,
बस कुछ लोगों का मेला है,
अरे भई, मेला है भई मेला है,
लोकतंत्र का मेला है
--- मनु कंचन