Sunday, May 11, 2014

कानों का छेदना

तीन चक्कों पे चलने वाले रिक्शा पर बैठे हुए, एक छोटे से शहर की तंग सी गली से गुज़र रहा था।  आस पास की दुकानों पर नज़र घुमायी तो देखा दुकानें भी उतनी ही तंग थीं जितनी के गली। सोने, चांदी के गहनों से लदी हुई वो दुकानें तंग जरूर थीं पर गऱीब नहीं। दो तीन दुकानें निकली ही थीं के एक दुकान से ६-७ साल की लड़की रोते हुए बाहर आई। उसके एक कान से हल्का सा खून निकल रहा था। पीछे ही उसकी माँ और एक ५५-६० साल की औरत आती दिखाई दीं। एक हाथ से माँ लड़की को पकड़ रही थी तो दूसरे से कान के एक छोटे से झुमके को। लड़की रोती ही जा रही थी। माँ उसके आंसू पोंछते हुये पयार से बोली "दर्द हो रहा है?" लड़की ने हल्के से सिर हिला दिया। माँ फिर बोली "बस थोड़ी देर और, फिर हम तुम्हारी मनपसंद जगह चलेंगे।  ठीक है।" लड़की बोली "पर माँ मुझे दर्द हो रहा है, मुझे अन्दर नहीं जाना।" लड़की को शायद पता भी नहीँ था कि जो हो रहा है उसे कहते क्या हैँ।
खैर माँ ने कहा "गलत बात चलो अन्दर।" माँ की आवाज़ में हल्का सा गुस्सा दिख रहा था। लड़की तब भी अंदर नहीं गयी। माँ ने पीछे बूढी औरत की ओर देखा, मानो कुछ विनती कर रही हो। बूढी औरत ने ना का इशारे करते हुये सिर हिला दिया। लड़की के कान से खून की बून्दें अभी भी निकल रही थी। तभी माँ ने एक लम्बी सी सांस ली, पूरे ज़ोर से लड़की का हाथ पकड़ा और उसे खींच कर अन्दर ले गई। ये सब कुछ होने में रिक्शा जिस पर मैँ बैठा था उस दुकान को कहीं पीछे छोड़ आया था। अब बस दुकान के उस पारदर्शी कांच से लड़की के रोने की धुंधली सी तस्वीर दिखाई दे रही थी। पूरा तो पता नहीं पर शायद प्रक्रीया पूरी हो ही गई होगी, कान आखिर छिद ही गए होंगे। और शायद लड़की नए नए कुण्डल पाकर बाद में खुश भी बहुत हुई होगी, किस चीज़ हुई होगी मुझे नहीं पता।

मनु  कंचन

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