Wednesday, April 23, 2014

दुआ में नाम

जब तक हम कुछ बोले नहीं तब तक ही हम अच्छे थे,
जब कुछ बोलकर मैदान में आ गए,
तो कहने लगे ये तो अकल से भी कच्चे थे,
न बोलते तो हम सो न पाते,
अब बोल दिए तो संग ही रात गुजारेंगे,
कुछ तारे तुम चुनना कुछ हम चुन लाएंगे,
अमावस की काली रात में,
इन्हीं तारों से, इक बेदागी चाँद सवांरेंगे,
जो कोई और हम जैसा फिर कहीं और रात गुज़ारेगा,
अगली बार अपनी दुआ में हम दोनों का नाम पुकारेगा


-- मनु कंचन

Monday, April 21, 2014

लोकतंत्र का मेला - भाग १

मेला है भई मेला है,
प्रजातंत्र का मेला है,
पांच साल में आता है,
रंग अनेकों लाता है,
कुर्सी खाली हो जाती है,
लोगों को सौंप दी जाती है,
वोटों की दौड़ फिर लगती है,
कोई कलफ पहनकर आता है,
कोई नेता जी कहलाता है,
सब मंचों पे चढ़ जाते हैं,
हुंकार लगाये जाते हैं,
धर्मों को उठाया जाता है,
भगवान बुलाया जाता है,
पर, पर...
रोटी की बात नहीं उठती,
क्यों काम नहीं मिल पाते हैं,
क्यों खेत सूने हो जाते हैं,
ये क्यों नहीं पूछा जाता है,
ये क्यों नहीं पूछा जाता है- जब नारे पुकारे जाते हैं
जब वोट बटोरे जाते हैं,
लोकतंत्र का लोक हैं हम,
ये हम लोगों का मेला है,
समझने की ये बात ही है,
ये हम लोगों का मेला है,
मेला है भाई मेला है,
लोकतंत्र का मेला है...
-- मनु कंचन

बैग की जमावट

पीछे कैरियर पर स्कूल का बैग रखा था। स्कूल का बैग उस पतले से कैरियर पर संभाले रखना भी एक कला बन गयी थी । किताबों और कॉपियों की जमावट एक चित्र का रूप लेती जा रही थीं। बैग उसके लिए कागज़नुमा कैनवस और हर किताब, हर कॉपी एक अलग नया रंग। इस चित्र को हर रोज़ बनाना और फिर शाम को इसे बिगाड़ना, नहीं नहीं बिगाड़ना नहीं मिटाना ताकि फिर एक नया चित्र बना सके, एक नियम बन गया था। उसके लिए स्कूल जाना इस चित्र को बनाने का एक अवसर था। उस दिन भी वह अपने चित्र के साथ अपनी कक्षा में बैठा था। आस पास सब व्यस्त थे रंगों से कागज़ को भरने में। ड्राइंग की क्लास चल रही थी। उसने भी अपना बैग उठाया और पिछला चित्र मिटा कर एक नया चित्र बनाने लगा। कुछ देर बाद मैडम उसके पास आयीं। अपनी दुनिया में खोया उसे लगा मैडम उसके बैग के बारे में जानकार खुश होंगी। उसे क्या पता जहाँ वो चला गया है उस जगह के दरवाज़े पे दुनिया ने "प्रवेश निषेध" लिखकर मानकीकरण का एक ताला टांग दिया है। तभी मैडम चिल्लाते हुए बोली "बैग नीचे रखो और रंग भरने शुरू करो।" उसने सहम कर बैग नीचे रखा और रंग उठा लिए। भरे उसने तब भी नहीं, पर उसे "प्रवेश निषेध" अब साफ़ साफ़ लिखा हुआ दिख रहा था। कैरियर पे बैग को संभालते संभालते साईकिल गलत दिशा में मुड़ गई थी।

मनु कंचन

Friday, April 18, 2014

सूर्य की पहचान

सूर्य की किरणें आज तीखी लग रही थीं, मानो एक नाराज़गी ज़ाहिर कर रही हों। बोल रही हों "सुनो आज वो नाराज़ हैं।" सूर्य नाराज़ है, पर क्यों। इसी पे चिंतन कर रहा था कि विज्ञान की वह बात याद आ गयी "सूर्य भी एक तारा है।" यूँ लगा जैसे सूर्य की कहानी ने नया मोड़ ले लिया हो। सूर्य एक तारा है!!!!! पर उसे तारों की श्रेणी में रखना तो शायद कल्पना में भी संभव न होगा। विज्ञान जाने कौन से पैमाने लगाता है। विज्ञान ये समझता नहीं कि तारे टिमटिमाते हैं और सूर्य, वो तो जलता है, तेज़ बहुत तेज़। यूँ लगा जैसे इतना नज़दीक होना ही इसके लिए एक अभिशाप बन गया हो। कैसी विडम्बना है अपनों से जाने कितनी दूर खड़ा है और जिनके करीब खड़ा है वो इसको इसकी पहचान ही नहीं देते। जाने फिर भी कैसे ये उन्ही के लिए हर पल जलता है, हर पर उन्हें ही रोशनी देता है। ज़रूर अपने अस्तित्व को खोने की आग ही इसे हर पल जला रही होगी।

मनु कंचन

Thursday, April 17, 2014

मेरी पहचान


अपने आप को समझने निकला था। लगा था अकेले ही इसकी समझ बन जायेगी। पर गलत था। जितना अपने आप को समझता हूँ उतना समझ आता है कि मैं इस विशाल समाज के उस  छोटे से हिस्से का प्रतिबिम्ब मात्र हूँ जिसको मैंने देखा है, जिसमे मैं रहा हूँ, और कुछ नहीं। अकेला तो मैं कहीं खड़ा ही नहीं था या फिर ये कहिये की मैं था ही नहीं, था तो केवल वो प्रतिबिम्ब। वह प्रतिबिम्ब जो सजीव है, महसूस करता है। वह प्रतिबिम्ब जिसका अस्तित्व  सामाजिक रिश्तों से बना है। वह समाज से ऐसे जुड़ा है जैसे कभी कभी दो शिशु जन्म के समय से ही एक दूसरे से जुड़े होते हैं। होते तो वो दो ही हैं पर उनके शरीर पूर्णतः अलग नहीं हुए होते। मैं (नहीं नहीं मैं नहीं, ये प्रतिबिम्ब) और समाज दो ऐसे शिशु हैं जो शरीर से तो अलग हैं पर मानसिक स्तर पर नहीं। शरीर से जुड़े हुए शिशुओं का होना शायद सृष्टि की रचना में अपवाद माना जाता है, पर इस प्रतिबिम्ब और समाज के सन्दर्भ में ऐसा रिश्ता प्राकृतिक सा प्रतीत होता है।

मनु कंचन

Sunday, April 13, 2014

सवेरा

सूर्य अभी उदय नहीं हुआ था, पर सवेरा हो चुका था। क्षितिज की सीमा के उस पार से ही सूर्य की किरणों ने रात्रि के काले अन्धकार को धरती के दूसरे कोने में धकेल दिया था। जहाँ किरणों की धीमी रोशनी आँखों के दृष्टिपटल से होते हुए मन की गहराइयों को प्रकाशित कर रही थी, वहीँ पक्षियों की आवाज़ कर्ण के पर्दों से टकरा कर शांत मन के सागर में हल्की हल्की तरंगों की रचना कर रही थी। ठंडी हवा के मंद मंद झोंके जब शरीर के सबसे विस्तृत अंग को छू रहे थे तो मानो मन के उस सागर रूपी अवतार को जीवंत कर दे रहे थे। जाने कैसी दशा थी, आखें खुली थीं फिर भी कल्पना जगत सजीव था। अदृश्य मन मानो शरीर को अपनी दुनिया में ही ले गया था।

मनु कंचन 

Saturday, April 12, 2014

इंसान की परिभाषा

टीचर : "आज इंसान बहुत आगे पहुँच गया है, ताकवर हो गया है, विज्ञान के बल पर बड़ी बड़ी बीमािरियों से, बड़ी बड़ी विपदाओं से लड़ने लगा है। " टीचर यह बोलकर बोर्ड पर बड़े बड़े अक्षरों में इंसान और विज्ञान लिखने लगी।
तभी एक छात्रा बोली "मैडम।"
मैडम लिखते हुए ही, बिना घूमे बोली "हाँ, बताइये" .
छात्रा बोली "मैडम, क्या लड़कियां इंसान नहीं होतीं? क्या सिर्फ लड़के ही आगे पहुंचे हैं लड़कियां नहीं।"
टीचर लिखते लिखते रुक गयी थी। शायद इंसान शब्द की परिभाषा में कुछ तलाशने लगी थी।

मनु कंचन

Sunday, April 6, 2014

कैद

अपने घाव को देख रही थी। भर तो गया था पर उसका निशान रह गया था। निशान को उँगलियों से ढकती फिर हटा के देखती, बचपन वाला खेल खेल रही थी अपने आप के साथ, इस आस में कि शायद ये खेल ही इस घाव को मिटा दे, कि शायद वो उंगलियां हटाये और ये घाव मिट जाए। अतीत की स्मृतियाँ उस घाव के निशान पर सिमट गयी थीं जैसे, वो मिट जाए तो मानो स्मृतियाँ भी चली जाएंगी। वो स्मृतियाँ जिनमे उसका एक परिवार बसता था, एक परिवार जिसमे वो एक जानवर के साथ रहती थी। शादी के सात फेरे उसने एक इंसान के साथ लिए थे या ये कहिये शायद उसने जानवर को इंसान समझ लिया था। शादी उसके लिए मृत्यु दंड बन गया था। वो खुद एक इंसान से एक जानवर के चारे में परिवर्तित हो गयी थी।  उस घर में रहना उसके लिए एक कैद बन गया था। ये सोचती हुई वह उस खेल से निराश होने ही वाली थी कि तभी बाहर से एक तीखी सी आवाज़ आई  "कैदी नंबर चार सौ बारह, चलो तुमसे कोई मिलने आया है।"

मनु कंचन

Tuesday, April 1, 2014

लेखक का डर

"वह डर रहा था अपने विचारों से, अपनी सोच से, उसमे उठने वाले प्रश्नो से। उसे लग रहा था कि वह कहीं लिखते-लिखते सामाजिक मानचित्र के उस भाग में न चला जाए, जहाँ  पर आज के मध्यम वर्ग का कोई भी सदस्य न सिर्फ जाना बल्कि उसका ज़िक्र तक नहीं करना चाहता। आखिरकार यही लोग तो उसकी आर्थिक लाचारी का इलाज हैं। कमायेगा नहीं तो खायेगा क्या और खायेगा नहीं तो सोचेगा क्या। विचारों का क्या है पेट भरा होगा तो फिर आ जायेंगे। और न भी आयें, पेट तो भरा ही है न।" यह सोचते हुए उसने पलकें गिरा ली और सपनों की उस भीड़ में शामिल होने के लिए क़तार में लग गया।  उसके अंदर का, या शायद बाहर का भी, मध्यम वर्ग का इंसान आखिर जीत ही गया।

मनु कंचन