Tuesday, April 1, 2014

लेखक का डर

"वह डर रहा था अपने विचारों से, अपनी सोच से, उसमे उठने वाले प्रश्नो से। उसे लग रहा था कि वह कहीं लिखते-लिखते सामाजिक मानचित्र के उस भाग में न चला जाए, जहाँ  पर आज के मध्यम वर्ग का कोई भी सदस्य न सिर्फ जाना बल्कि उसका ज़िक्र तक नहीं करना चाहता। आखिरकार यही लोग तो उसकी आर्थिक लाचारी का इलाज हैं। कमायेगा नहीं तो खायेगा क्या और खायेगा नहीं तो सोचेगा क्या। विचारों का क्या है पेट भरा होगा तो फिर आ जायेंगे। और न भी आयें, पेट तो भरा ही है न।" यह सोचते हुए उसने पलकें गिरा ली और सपनों की उस भीड़ में शामिल होने के लिए क़तार में लग गया।  उसके अंदर का, या शायद बाहर का भी, मध्यम वर्ग का इंसान आखिर जीत ही गया।

मनु कंचन

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