Sunday, April 13, 2014

सवेरा

सूर्य अभी उदय नहीं हुआ था, पर सवेरा हो चुका था। क्षितिज की सीमा के उस पार से ही सूर्य की किरणों ने रात्रि के काले अन्धकार को धरती के दूसरे कोने में धकेल दिया था। जहाँ किरणों की धीमी रोशनी आँखों के दृष्टिपटल से होते हुए मन की गहराइयों को प्रकाशित कर रही थी, वहीँ पक्षियों की आवाज़ कर्ण के पर्दों से टकरा कर शांत मन के सागर में हल्की हल्की तरंगों की रचना कर रही थी। ठंडी हवा के मंद मंद झोंके जब शरीर के सबसे विस्तृत अंग को छू रहे थे तो मानो मन के उस सागर रूपी अवतार को जीवंत कर दे रहे थे। जाने कैसी दशा थी, आखें खुली थीं फिर भी कल्पना जगत सजीव था। अदृश्य मन मानो शरीर को अपनी दुनिया में ही ले गया था।

मनु कंचन 

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