Sunday, March 30, 2014

समाज का नियम

टीवी चल रहा था। टीवी वाला कमरा अभी ब्यूटी पारलर बना हुआ था। उसकी बहन शायद वैक्सिंग करवा रही थी या फिर थ्रेडिंग, पता नही। आखिर एक लड़के को कितना पता होगा इन चीज़ों के बारे में। वह दूसरे कमरे में बैठा यही सोच रहा था। टीवी की आवाज़ उस कमरे में भी आ रही थी। उसने घड़ी की ओर देखा, शाम के 6 बज रहे थे। तभी माँ की आवाज़ आई  "सूरज, रसोई में आओ।" सूरज रसोई में जाकर खाना बनाने में माँ की मदद करने लगा।  कुछ देर बाद बोला "माँ लड़कियां ये सब क्यों करवाती हैं।" माँ दाल को छोंक रही थी। वही करते करते बोली "क्योंकि लड़कियों को सुन्दर दिखना होता है, यही तो समाज का नियम है"। टीवी अभी भी चल रहा था। "बेबी डॉल मैं सोने दी... बेबी डॉल मैं सोने दी..." की आवाज़ आ रही थी।

मनु कंचन

Saturday, March 29, 2014

आखिरी निशान

टेंट का ढांचा खड़ा था, ऐसा लग रहा था मानो किसी ने सजे धजे टेंट का आवर्धित एक्स -रे, उस एक्स -रे के काले पन्ने से निकाल कर वास्तविकता के तीन आयामों वाले चित्र में रख दिया हो। पर वह अकेला नहीं था, पास ही एक-दो कचरे के डब्बे थे, तीन-चार कुर्सियां थीं और बहुत सारे पेपर प्लेट, नरम प्लास्टिक के गिलास जूठन के साथ पड़े थे। लग रहा था यहाँ कल एक पूरा कारवाँ आया था, एक पूरा जश्न हुआ था। गेट पर खड़-खड़ करता टेम्पो बस अभी आकर खड़ा ही हुआ था। आ गए थे उसे लेने वाले। जश्न के आखिरी निशान भी बस अब खत्म होने को थे। चार लोग झाड़ू से जूठन समेट रहे थे और टेम्पो वाले ज़मीन में गढ़े उसके पैरों को निकाल रहे थे। वह टूट कर बिखर गया था, पर उसे पता था यही टेम्पो यही लोग फिर उसे कहीं जोड़कर खड़ा कर देंगे, फिर वहाँ एक कारवाँ आएगा, फिर वहाँ एक जश्न होगा, फिर वहाँ जूठन होगी और फिर यही लोग जश्न के आखिरी नशान मिटाने पहुँच जायेंगे।


मनु कंचन

Friday, March 28, 2014

गुनहगार

मैं चुपचाप बैठी थी।  सामने देख रही थी अपनी माँ को रोते हुए। आज मेरे बाउजी नहीं रहे या फिर ये कहूं के आज मुझे पता चला कि वो नहीं रहे।  जिनको मैं पिछले २ दिन से देख रही थी उस I.C.U. के कांच के उस पार वो मेरे बाउजी नहीं बस उनका शारीर था। आज मुझे वो शीशा भी दीवार कि तरह लग रहा था, जिसके पार कुछ नहीं दिखता। जाने क्यों मैंने डॉक्टर कि बात मानली, जाने क्यों मैंने उसे पूछा नहीं कि "आप मुझे उनसे मिलने क्यों नहीं दे रहे हैं।" क्यों मुझे उसके शब्दों में लालच दिखाई नहीं दिया, क्यों उसे मेरे चहरे पे मेरे बाउजी से मिलने की, उनके पास बैठने की चाह दिखाई न दी।  आज वो डॉक्टर एक गुनहगार बन गया था मेरे लिए। 

मनु कंचन

Thursday, March 27, 2014

मेरी जाति



गर्मियां चल रही थीं। आज के लिए चिलचिलाती धूप धरती के इस हिस्से पर अपना परचम लहरा चुकी थी। वह एक रिक्शे के इंतज़ार में था, आखिर पैदल चलना सबके बस का रोग नहीं। थोड़ी देर में एक रिक्शा आता दिखा। उसने हाथ हिलाते हुए आवाज़ लगाई "भैया"। लेकिन उस पर तो कोई बैठा था।  एक अंकल थे, लगभग ३८-४० साल के रहे होंगे। रिक्शा रुक गया। शायद अंकल ने कहा होगा। तभी अंकल ने पूछा "कहाँ, मेन रोड तक जाना है?"। वह बोला "जी अंकल "। अंकल ने बिना कुछ कहे बैठने के लिए जगह दे दी। सफ़र शुरू हो गया, था चाहे कुछ मिनटों का ही पर यादगार था। बातचीत शुरू हो गयी। एक दूसरे के बैकग्राउंड के बारे में प्रशन शुरू हुए।  बात चलते-चलते जाति पर आयी। अंकल ने पूछा "तुम किस जाति के हो" । वह बोला "अंकल, मुझे नहीं पता " । अंकल हँस कर बोले "मेरे पांच साल के बच्चे को पता है उसकी जाति का और तुम इतने बड़े और पढ़े लिखे होकर नहीं जानते"। उसने मुस्कुरा कर उत्तर दिया "अंकल, इंसान होना काफी नहीं"। अंकल ने कुछ जवाब नहीं दिया और न वो कुछ और बोला। शायद अब धूप से ज़यादा उनको एक दूसरे कि बातें चुभ रही थीं। 

मनु कंचन 


Tuesday, March 25, 2014

सफ़ेद चादर ओढ़े लोग

आज बगल वाले घर में सन्नाटा था या फिर ये कहिये कि आज शायद पूरा मोहल्ला ही चुप था।  जाने कैसे वो १० साल का बच्चा इस सन्नाटे को देख रहा था, आखिर वो था तो १० साल का बच्चा ही। उसके आस पास सब अपने रोज़मर्रा के कार्यों में लगे थे जैसे कुछ हुआ ही ना हो। वो भी वही रोज़ कि चीज़ें करना चाहता था, वही क्रिकेट खेलना, वही विडियो गेम पे लड़ना, पर कैसे करे जिनके साथ वो खेलता था वो तो चले गए थे। आखिरी बार शायद उसने अपने दोस्तों को दशहरे की दोपहर को देखा था।  अरे नहीं आखिरी बार का मंज़र तो वो भूल ही नहीं सकता। कैसे भूलेगा चार लोगों को, हाँ लोगों को, सफ़ेद चादर में लिपटे घर के बाहर के आँगन में ज़मीन पर पड़े। आस पास सब सफ़ेद कपड़े पहने बैठे थे, दो लोग छाती पीट रहे थे और वो अपने भाई के साथ जाता हुआ उस मंज़र को दिल में बैठा रहा था।

मनु कंचन 

Monday, March 24, 2014

विज्ञान के रिश्ते

"विज्ञान समाज के रिश्तों में बंधा है। क्या आगे बढ़ने के लिए विज्ञान की समझ व जिज्ञासा से ज़यादा रिश्ते बनाना आवश्यक है ?" यही दिमाग में चल रहा था उसके, वहाँ लेक्चर में बैठे हुए। लेक्चर शुरू होने से पहले वह और उसका मित्र उन्ही रिश्तों कि बात कर रहे थे जिनमें विज्ञान बंधा है। मित्र उससे बोलते हुए "यार, हम तो बेवकूफ रह गए। हम आज भी विज्ञान कि किताबों में ही बैठे हैं पर असल जीवन की कहानी तो कुछ और ही है।" उत्तर में वह बोला "सही कह रहे हो यार, यहाँ रिश्ते बनाने ज़रूरी हैं आपको कुछ आता हो, यह नहीं।" यह वो पहले भी देख और सोच चुका था, पर अपना नहीं पाया था। आज भी वह अपने आप को आगे बढ़ाने के लिए किसी मित्र, किसी सगे सम्बन्धी के पास जाने से कतराता था।
कुछ देर लेक्चर में बैठने के बाद दोनों बाहर आ गए। शायद आज फिर वो बेवकूफ बन गए थे या शायद आज भी वो जिज्ञासा के पक्ष में रिश्तों को छोड़ आये थे।

मनु कंचन 

Sunday, March 23, 2014

बिना नाम की कहानी

"क्या कहानी में नाम होना आवश्यक है? शायद ये प्रशन गलत है । सही प्रशन होगा, क्या पात्र की पहचान उसके नाम से होती है?" ये सोचते हुए वह अपने घर पहुँच गया था । घर के दरवाज़े पर ताला लगा था, जाने क्या सुध हुई उसी से पूछने लगा "तुम बताओ, कहानी में पात्र का नाम होना ज़रूरी है क्या ?" जाने कहाँ से आवाज़ आई "कहानी का पता नहीं, पर असल ज़िन्दगी में तो है ।" वह स्तब्ध रह गया, एक ताला कैसे बोल सकता है । पीछे मुड़ कर देखा एक २०-२२ साल का लड़का गैलरी में झाड़ू मार रहा था। लड़के ने उसकी ओर देखते हुए एक मुस्कराहट दी और फिर सफाई करने में लग गया ।

मनु कंचन 

Saturday, March 22, 2014

हमेशा ऐसे ही रहना




गर्मी का मौसम था| शाम के छह बज रहे होंगे सूरज कि स्थिति से उसने अनुमान लगाया यह सोचते हुए वह बाज़ार की ओर बढ़ रहा था पैदल ही जा रहा था, आखिर छोटे जगह में रहने का यही फायदा है सब आस पास ही होता है वो अंग्रेजी में कहते हैं 'वाकिंग डिस्टेंस', यहाँ पर पूरा शहर ही वाकिंग डिस्टेंस पर है सो वह पैदल ही निकल गया बाज़ार अब सामने ही था रोड के उस पार। तभी कुछ दूर खड़े अंकल किसी से बात करते दिखाई दिए वह कई बार अंकल से घर पर मिला था, तो सोचा अभी नमस्ते करके जाता हूँ | बात करते करते अंकल ने इस ओर देखा, तो उसने मुस्कुराते हुए सर को हल्का सा झुका कर नमस्ते कर दी अंकल ने इशारे से कहा एक मिनट रुको अंकल अपनी बात ख़तम करके उसके पास पहुंचे और बोले "बेटा कुछ काम था क्या " उसने कहा " नहीं अंकल बस यहाँ से गुज़र रहा था, आपको देखा तो सोचा नमस्ते कर लूँ " अंकल मुस्कुराये और आशीर्वाद देते हुए बोले "हमेशा ऐसे ही रहना" वह कुछ समझ नहीं पाया इससे पहले कि कुछ पूछ पाता, अंकल वापिस जा चुके थे

कांस्टेबल और कुत्ता


छुट्टी का दिन था| सो आज उसने घूमने का तय किया| पास वाली मेन रोड के बस स्टैंड से लोकल बस पकड़ी| थोड़ी दूर बस पहुंची ही थी कि पता चला पूरा शहर ही घूमने निकला है, बस फर्क इतना था कि शहर अपनी-अपनी गाड़ियों में था और वो बस में| बस बुरी नहीं थी, पर अगर बैठने को जगह न मिले तो मेट्रो ट्रैन भी अच्छी नहीं लगती| बस की छत को सहारा देते पोल से लग कर खड़ा कुछ सोच ही रहा था कि पास वाले फूटपाथ पर चलते लोगों कि हसीं सुनाई दी| सब पीछे देख रहे थे| मुड़ कर देखा तो एक कुत्ता, देखने में आवारा लग रहा था, पुलिस कांस्टेबल के पीछे भाग रहा था और कांस्टेबल आगे आगे अपने आप को बचाते हुए| कांस्टेबल के हाथ में डंडा था पर फिर भी वो डर कर भाग रहा था कुत्ता से, कुत्ता नहीं| आस पास के लोगों की तरह , यह देख कर, वह भी हसें बिना रह नहीं पाया| शायद सब की तरह उसने भी यही सोचा चलो कोई तो है हम लोगों के बीच जो कुछ देर के लिए ही सही पर सरकारी तंत्र को हिला और दौड़ा सकता है| फिलहाल वह हंस रहा था पर अंत क्या होगा न वो जानता था, न फूटपाथ के वो लोग और न ही शायद वो कुत्ता|

मनु कंचन