Friday, March 28, 2014

गुनहगार

मैं चुपचाप बैठी थी।  सामने देख रही थी अपनी माँ को रोते हुए। आज मेरे बाउजी नहीं रहे या फिर ये कहूं के आज मुझे पता चला कि वो नहीं रहे।  जिनको मैं पिछले २ दिन से देख रही थी उस I.C.U. के कांच के उस पार वो मेरे बाउजी नहीं बस उनका शारीर था। आज मुझे वो शीशा भी दीवार कि तरह लग रहा था, जिसके पार कुछ नहीं दिखता। जाने क्यों मैंने डॉक्टर कि बात मानली, जाने क्यों मैंने उसे पूछा नहीं कि "आप मुझे उनसे मिलने क्यों नहीं दे रहे हैं।" क्यों मुझे उसके शब्दों में लालच दिखाई नहीं दिया, क्यों उसे मेरे चहरे पे मेरे बाउजी से मिलने की, उनके पास बैठने की चाह दिखाई न दी।  आज वो डॉक्टर एक गुनहगार बन गया था मेरे लिए। 

मनु कंचन

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