Saturday, March 29, 2014

आखिरी निशान

टेंट का ढांचा खड़ा था, ऐसा लग रहा था मानो किसी ने सजे धजे टेंट का आवर्धित एक्स -रे, उस एक्स -रे के काले पन्ने से निकाल कर वास्तविकता के तीन आयामों वाले चित्र में रख दिया हो। पर वह अकेला नहीं था, पास ही एक-दो कचरे के डब्बे थे, तीन-चार कुर्सियां थीं और बहुत सारे पेपर प्लेट, नरम प्लास्टिक के गिलास जूठन के साथ पड़े थे। लग रहा था यहाँ कल एक पूरा कारवाँ आया था, एक पूरा जश्न हुआ था। गेट पर खड़-खड़ करता टेम्पो बस अभी आकर खड़ा ही हुआ था। आ गए थे उसे लेने वाले। जश्न के आखिरी निशान भी बस अब खत्म होने को थे। चार लोग झाड़ू से जूठन समेट रहे थे और टेम्पो वाले ज़मीन में गढ़े उसके पैरों को निकाल रहे थे। वह टूट कर बिखर गया था, पर उसे पता था यही टेम्पो यही लोग फिर उसे कहीं जोड़कर खड़ा कर देंगे, फिर वहाँ एक कारवाँ आएगा, फिर वहाँ एक जश्न होगा, फिर वहाँ जूठन होगी और फिर यही लोग जश्न के आखिरी नशान मिटाने पहुँच जायेंगे।


मनु कंचन

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