Sunday, April 6, 2014

कैद

अपने घाव को देख रही थी। भर तो गया था पर उसका निशान रह गया था। निशान को उँगलियों से ढकती फिर हटा के देखती, बचपन वाला खेल खेल रही थी अपने आप के साथ, इस आस में कि शायद ये खेल ही इस घाव को मिटा दे, कि शायद वो उंगलियां हटाये और ये घाव मिट जाए। अतीत की स्मृतियाँ उस घाव के निशान पर सिमट गयी थीं जैसे, वो मिट जाए तो मानो स्मृतियाँ भी चली जाएंगी। वो स्मृतियाँ जिनमे उसका एक परिवार बसता था, एक परिवार जिसमे वो एक जानवर के साथ रहती थी। शादी के सात फेरे उसने एक इंसान के साथ लिए थे या ये कहिये शायद उसने जानवर को इंसान समझ लिया था। शादी उसके लिए मृत्यु दंड बन गया था। वो खुद एक इंसान से एक जानवर के चारे में परिवर्तित हो गयी थी।  उस घर में रहना उसके लिए एक कैद बन गया था। ये सोचती हुई वह उस खेल से निराश होने ही वाली थी कि तभी बाहर से एक तीखी सी आवाज़ आई  "कैदी नंबर चार सौ बारह, चलो तुमसे कोई मिलने आया है।"

मनु कंचन

Tuesday, April 1, 2014

लेखक का डर

"वह डर रहा था अपने विचारों से, अपनी सोच से, उसमे उठने वाले प्रश्नो से। उसे लग रहा था कि वह कहीं लिखते-लिखते सामाजिक मानचित्र के उस भाग में न चला जाए, जहाँ  पर आज के मध्यम वर्ग का कोई भी सदस्य न सिर्फ जाना बल्कि उसका ज़िक्र तक नहीं करना चाहता। आखिरकार यही लोग तो उसकी आर्थिक लाचारी का इलाज हैं। कमायेगा नहीं तो खायेगा क्या और खायेगा नहीं तो सोचेगा क्या। विचारों का क्या है पेट भरा होगा तो फिर आ जायेंगे। और न भी आयें, पेट तो भरा ही है न।" यह सोचते हुए उसने पलकें गिरा ली और सपनों की उस भीड़ में शामिल होने के लिए क़तार में लग गया।  उसके अंदर का, या शायद बाहर का भी, मध्यम वर्ग का इंसान आखिर जीत ही गया।

मनु कंचन