"विज्ञान समाज के रिश्तों में बंधा है। क्या आगे
बढ़ने के लिए विज्ञान की समझ व जिज्ञासा से ज़यादा रिश्ते बनाना आवश्यक है ?"
यही दिमाग में चल रहा था उसके, वहाँ लेक्चर में बैठे हुए। लेक्चर शुरू
होने से पहले वह और उसका मित्र उन्ही रिश्तों कि बात कर रहे थे जिनमें
विज्ञान बंधा है। मित्र उससे बोलते हुए "यार, हम तो बेवकूफ रह गए। हम आज भी
विज्ञान कि किताबों में ही बैठे हैं पर असल जीवन की कहानी तो कुछ और ही
है।" उत्तर में वह बोला "सही कह रहे हो यार, यहाँ रिश्ते बनाने ज़रूरी हैं
आपको कुछ आता हो, यह नहीं।" यह वो पहले भी देख और सोच चुका था, पर अपना
नहीं पाया था। आज भी वह अपने आप को आगे बढ़ाने के लिए किसी मित्र, किसी सगे
सम्बन्धी के पास जाने से कतराता था।
कुछ देर लेक्चर में बैठने के बाद दोनों बाहर आ गए। शायद आज फिर वो बेवकूफ बन गए थे या शायद आज भी वो जिज्ञासा के पक्ष में रिश्तों को छोड़ आये थे।
मनु कंचन
कुछ देर लेक्चर में बैठने के बाद दोनों बाहर आ गए। शायद आज फिर वो बेवकूफ बन गए थे या शायद आज भी वो जिज्ञासा के पक्ष में रिश्तों को छोड़ आये थे।
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