Thursday, May 8, 2014

लोकतंत्र का मेला - भाग २

मेला है भई मेला है,
लोकतंत्र का मेला है,
पांच साल में आता है,
रंग अनेकों लाता है,
इसे, खूब सजाया जाता है,
सबको ही बुलाया जाता है,
ऊँची ऊँची आवाज़ों में,
बहुत शोर मचाया जाता है,
रंगबिरंगे मंचों पर,
फिर नाटक रचाये जाते हैं,
टेढ़े मेढ़े नेताओं को,
फिर एक्टर बनाया जाता है,
जगह जगह पे जा जाकर,
फिर चर्चाएं की जाती हैं,
बड़े बड़े से पंखों से,
इक हवा चलायी जाती है,
बड़ी बड़ी मशीनो से,
नदी, पैसे की बहाई जाती है,
जब ये सब देखा जाता है,
तो प्रश्न ये मन में आता है,
ये मेला कौन सजाता है,
कौन हमें बहलाता है,
ये पैसा कहाँ से आता है,
मेला आने के पहले तक,
कहाँ ये रखा जाता है,
ये क्यों नहीं कोई बताता है,
ये क्यों नहीं कोई बताता है,
इन प्रश्नों के फिर उत्तर में,
बस इतना समझ में आता है,
नहीं नहीं ये मेला नहीं,
ये तो वोटों का व्यापार है,
नहीं नहीं ये मेला नहीं,
ये तो खुला बाजार है,
ये हम लोगों का मेला नहीं,
बस कुछ लोगों का मेला है,
अरे भई, मेला है भई मेला है,
लोकतंत्र का मेला है
--- मनु कंचन

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