अपने घाव को देख रही थी। भर तो गया था पर उसका निशान रह गया था। निशान को उँगलियों से ढकती फिर हटा के देखती, बचपन वाला खेल खेल रही थी अपने आप के साथ, इस आस में कि शायद ये खेल ही इस घाव को मिटा दे, कि शायद वो उंगलियां हटाये और ये घाव मिट जाए। अतीत की स्मृतियाँ उस घाव के निशान पर सिमट गयी थीं जैसे, वो मिट जाए तो मानो स्मृतियाँ भी चली जाएंगी। वो स्मृतियाँ जिनमे उसका एक परिवार बसता था, एक परिवार जिसमे वो एक जानवर के साथ रहती थी। शादी के सात फेरे उसने एक इंसान के साथ लिए थे या ये कहिये शायद उसने जानवर को इंसान समझ लिया था। शादी उसके लिए मृत्यु दंड बन गया था। वो खुद एक इंसान से एक जानवर के चारे में परिवर्तित हो गयी थी। उस घर में रहना उसके लिए एक कैद बन गया था। ये सोचती हुई वह उस खेल से निराश होने ही वाली थी कि तभी बाहर से एक तीखी सी आवाज़ आई "कैदी नंबर चार सौ बारह, चलो तुमसे कोई मिलने आया है।"
मनु कंचन
1 comment:
Bahut badya mere bhai
Post a Comment